ABOUT ATRIPT (EK ADHURA AADHYATMIK SAFAR)
पुस्तक
अतृप्त
(एक अधूरा आध्यात्मिक सफ़र)
लेखक
राकेश कुमार श्रीवास्तव ‘राही’
ISBN (Paperback)
xxx-xx-xxxxxx-x-x
संस्करण
प्रथम (2022)
© राकेश कुमार श्रीवास्तव
प्रकाशक
माउस मीडिया क्रिएशन
D-96, प्रथम तल, सेक्टर-10, नोयडा,
उत्तर प्रदेश – 201301, भारत
वेबसाईट : http://mousemedia।in/
ई-मेल : info@ mousemedia।in
फोन : +91-7503024025
+ 91-1204265599
ATRIPT
(EK ADHURA ADHYATMIK SAFAR)
A BOOK BY RAKESH KUMAR SRIVASTAVA ‘RAHI’
ISBN (Paperback)
xxx-xx-xxxxxx-x-x
EDITION
FIRST (2022)
© RAKESH KUMAR SRIVASTAVA
PUBLISHED BY
Mouse Media Creation
D-96, First Floor, Sector-10, Noida,
U।P – 201301, INDIA
WEBSITE : http://mousemedia।in/
E-Mail : info@ mousemedia।in
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उपरोक्त ई-बुक व पेपरबैक पुस्तक के सभी कॉपीराइट अधिकार लेखक के पास सुरक्षित है।
ब्रह्मलीन सद्गुरु डॉ. करतार सिंह जी महाराज
की याद में समर्पित।
दो शब्द
मैं कोई आध्यात्मिक ज्ञाता नहीं हूँ अपितु इस रास्ते पर चलने वाला एक जिज्ञासु मात्र हूँ। मुझे जीवन में सद्गुरु का सानिध्य मिला परन्तु मेरी अज्ञानता के कारण, मैं उनसे मुझे बैअत करने के लिए नहीं कह सका। फिर भी वे दयालु थे। वे अपने शिष्यों और मुझ में कोई अंतर का भाव नहीं रखते थे। मैंने इस आध्यात्मिक सफ़र के प्रारंभिक दौड़ में ही जो गलती की, जिससे मेरे इस सफ़र का आगाज़ ही नहीं हो पाया, तब मुझे इस पुस्तक को लिखने का विचार आया। मैंने अपनी इस छोटी सी पुस्तक को छः भागों में बाँटा है।
प्रथम भाग ‘मेरे अपने विचार और अनुभव’ का यहाँ उल्लेख करने का मकसद बस इतना है कि जब आपको सच्चा गुरु मिल जाए, आप जाँच-परख लें और वे भी आपको अपनाने को तैयार हों तो जो गलती मैंने की है वही गलती आप न करें।
द्वितीय भाग ‘सूफी और नक़्शबंदिया मुजद्दादिया मज़हरिया सिलसिला’ मेरे द्वारा अध्ययन की गई विभिन्न पुस्तकों एवं इन्टरनेट पर उपलब्ध जानकारियों पर आधारित है। इसको लिखने का मकसद सिर्फ इतना है कि आप तव्वासुफ़ या सूफीमत और अपने सत्संग के सिलसिले को समझ सकें।
तृतीय भाग में परम पूज्य गुरुदेव रामचंद्र जी (लाला जी महाराज) के द्वारा चलाए गए रामाश्रम सत्संग के सिलसिले की गोल्डेन चेन की जानकारी उन्हीं की पुस्तकों एवं उनके शिष्यों द्वारा चलाए गई सत्संग संस्थाओं की पुस्तकों एवं वेब-साईट के अध्ययन के आधार पर दी गई है।
चौथे भाग में सूफीमत की तालीम और इजाज़तनामा, पांचवें भाग में हिन्दू सूफियों को इजाज़तनामा और छठे भाग में इस सिलसिला के सत्संग संस्थान के सन्दर्भ में जानकारी दी गई है।
साथ में विशेष अनुरोध है कि आप जिस सिलसिले को भी अपनाएं, उसकी जानकारी पहले हासिल कर लें, जाँच-परख लें, जब सब सही लगे तब गुरु धारण करने में विलम्ब न करें। सच्चे गुरु की पहचान के बारे में स्वयं ब्रह्मलीन सद्गुरु डॉ. करतार सिंह जी महाराज ने अपनी पुस्तक ‘प्रेम का सूर्य’ में लिखी है, जो निम्नलिखित है :-
सच्चे गुरु की पहचान
एक दार्शनिक और मानव शास्त्र के ज्ञाता की अपेक्षाकृत सच्चे सतगुरू कहीं अधिक उच्च श्रेणी के होते हैं। जो वेदों के रहस्य को समझते हैं, ‘अवृजिन’ (दोषरहित) हैं, निष्पाप हैं, काम से निर्लिप्त हैं, जो शिक्षा देकर किसी प्रकार की अर्थ प्राप्ति की आशा नहीं रखते; वही सच्चे सन्त हैं। जिस प्रकार सूर्य प्रकाश देता है, चन्द्रमा शीतलता प्रदान करता है परन्तु बदले में कुछ नहीं लेता, क्योंकि भलाई करना उनका स्वाभाविक धर्म है, उसी प्रकार सतगुरू भी बिना किसी प्रतिदान के लोगों को सुख-शांति प्राप्त करने की युक्ति बताते हैं। ऐसे ही मनुष्य सच्चे गुरु हैं। सच्चा सतगुरू वह है जिसने अपनी आत्मा को मन के बन्धन से मुक्त कर लिया है और परमात्मा में लय हो गया है। उनके पास बैठने से हृदय में प्रेम तरंगें उठने लगती हैं। एक आलौकिक आकर्षण छा जाता है, उनके पास से हटने का मन नहीं करता। उनके आस-पास का वातावरण शान्त होता है, परम प्रकाश चारों ओर प्रकाशित होता रहता है। जिस तरह से हौज में भरा हुआ पानी बाहर छलकने लगता है, उसी तरह उनका हृदय जो ईश्वर प्रेम से भरा हुआ होता है छलकता रहता है। उसके पास का वातावरण ईश्वर प्रेम से समाविष्ट रहता है। ऐसी जगह जाकर देखना चाहिए कि बिना कुछ बताए उनके पास बैठने से ही मानसिक द्वंद्व शांत होता है या नहीं, हृदय उनकी ओर आकर्षित होकर प्रेम रस में सराबोर हो जाता है या नहीं।
यह भी देखना चाहिए कि उसने गुरूआई को जीविका का साधन तो नहीं बना लिया है। जो सच्चा गुरु है वह सदा अपनी जीविका के लिए स्वयं उपार्जन करेगा। कुछ न कुछ कार्य करके वह अपना जीवनयापन करेगा लेकिन दान लेकर नहीं खायेगा। यदि वह दान लेकर खायेगा तो उसकी आध्यात्मिक कमाई समाप्त हो जायेगी। दिन रात आत्मानन्द में लीन वह सांसारिक भोगों से उदासीन रहता है। उसके जो भी सांसारिक कर्म होते हैं वह केवल कर्तव्य मात्र के लिए होते हैं। ऐसे लोगों के पास जाने से धीरे-धीरे आत्मा के आनंद का अनुभव होने लगता है। वह भले ही आपसे बात न करें, उनके सामीप्य से ही आपकी आत्मा पर प्रकाश पड़ेगा। बदलाव धीरे-धीरे आएगा, क्योंकि आपकी आत्मा पर मन की तरंगों का पर्दा पड़ा हुआ है। आत्मा जो मन और इन्द्रियों से दबी पड़ी है शनैः-शनैः ऊपर आने लगती है और चैतन्य होने लगती है।
सन्त दो प्रकार के होते हैं – एक तो वह जो सचखंड से आते हैं और जीवों के उद्धार के लिए मनुष्य चोला धारण करते हैं। दूसरे वह जो उनकी संगति में रहकर आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्त करके अभ्यास द्वारा उस स्थिति को प्राप्त करते हैं।
(साभार प्रेम का सूर्य- ब्रह्मलीन सद्गुरु डॉ. करतार सिंह जी महाराज)
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