ABOUT DHAI KADAM


पुस्तक


ढाई कदम (उपन्यास)


लेखक


राकेश कुमार श्रीवास्तव ‘राही’


ISBN (Paperback)


978-93-878560-3-5


संस्करण


(प्रथम )  2019


COPYRIGHT NOTICE


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प्रकाशक


 

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“आकाश में पूनम का चाँद सदैव की भाँति अपनी रौशनी से सभी को नहला रहा था। चाँदनी रात में सितारे टिमटिमा रहे थे, तभी पूनम की रात अमावस्या की रात में तब्दील  हो गई। एक बहुत बड़े काले बादलों के समूह ने चाँद को पूरी तरह से ढँक लिया था और तारे बेबस होकर बादलों की करतूत को देख रहे थे।

अचानक दूधिया प्रकाश से जगमग आँगन में अँधेरे का साम्राज्य फ़ैलते देखकर आशंकित हो तीनों स्त्रियाँ सोने चली गईं । परन्तु तीनों मौन अवस्था में लेटी रहीं। कुछ ही देर में बिजली कौंधने लगी और देखते ही देखते पूरे आकाश में काले बादलों का साम्राज्य स्थापित हो गया। तारे भी डरकर छुप गए। रातभर बादलों का उत्पात चलता रहा और अंत में झमाझम बारिश होने लगी। तीनों कब नींद की आगोश में चली गईं, पता ही नहीं चला।”


-इसी उपन्यास से



 

समर्पण


कहाँ आसान होता है, सामाजिक बेड़ियों को तोड़ना परन्तु इसको चुनौतियों के रूप में लेकर कुछ स्त्रियाँ छोटे-छोटे शहरों से महानगरों में आकर अपने बड़े सपनों को पूरा करने के लिए, अपनी जी-जान लगा देती हैं और पुरुष-प्रधान समाज को नए मापदंड स्थापित करने को मजबूर करती हैं। ऐसी ही तमाम संघर्षरत महिलाओं को समर्पित है, यह उपन्यास, जो अपनी अस्मिता की शुचिता बरकरार रखते हुए अपना जीवन गरिमामय तरीके से जी कर दूसरी  महिलाओं का मनोबल बढ़ा रहीं हैं।




राकेश कुमार श्रीवास्तव “राही”

रेल डिब्बा कारखाना, हुसैनपुर ,

कपूरथला (पंजाब)-144 602

मोबाईल नं: 6283318250 

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ब्लॉग  : www.rakeshkirachanay.blogspot.com

  




एक



सुबह के छह बजे, अलार्म की आवाज़ सुनकर जब शिवांगी की नींद खुली तो दिसंबर के सर्द महीने में भी उसने अपने-आप को पसीने से तर पाया। अभी भी कमरे में अंधेरा पसरा हुआ था। बिस्तर से उठकर, पर्दे को खिसकाया और उसने खिड़की खोली।  ठंडी हवा के झोंको ने, जब उसके शरीर को स्पर्श किया तो उसके पूरे बदन में सिहरन दौड़ गई। इस सिहरन में भी, उसके विचलित मन को शांति मिल रही थी। कुछ देर मूर्तिवत वहीं आँखें बंद किए खड़ी रही। तन्द्रा तब टूटी जब एक कुत्ते के रोने की आवाज़ उसके कानों में पड़ी। आँखें खुलीं तो सामने स्ट्रीट लाईट की रौशनी के घेरे में एक काला कुत्ता अपना मुँह ऊपर किए, रो रहा था। शिवांगी का मन अवसाद से भर गया।


 खिड़की को बंद करते हुए वो अपने-आप में बुदबुदाई, “इस मनहूस को भी इसी समय रोना था।”

अभी-अभी तो वह अपने आप को तरोताज़ा महसूस कर रही थी और अभी इस कुत्ते की रोने की आवाज़ ने उसके मन को बेचैन कर दिया।


 सर को झटकते हुए, उसने अपने-आप से कहा, “इस कुत्ते के रोने से क्या होता है? परन्तु बचपन में बार-बार सुनी बातों का असर भी तो जल्दी  नहीं जाता और बात जब अपनी ज़िंदगी के उन पहलुओं की हो जिसको वर्षों से राज बना कर, अपने सीने में दफ़न किया हो और अचानक वे सभी घटनाएँ एक साथ तीव्र-गति से उसके मस्तिष्क से  गुजरे तो पसीने से लथपथ होना लाज़मी है। उफ्फ! मैं भी क्या लेकर बैठ गई? ज़िंदगी भर का हिसाब-किताब रखना क्या जरूरी है? क्या सभी मेरी तरह ज़िंदगी के बुरे वक़्त को सीने से लगाए बैठे रहते हैं? मैंने अक्सर देखा है कि जो सामाजिक मापदंडों के अनुसार चलते हैं, वे आपस में लड़ते-झगड़ते हुए भी खुश रहते हैं। खैर! अब तो उम्र भी निकल गई। वैसे भी कोई पीछे मुड़कर ज़िंदगी के उन पलों का अवलोकन तो कर सकता है परन्तु पुनः उस लमहों को जी नहीं सकता।” 


शिवांगी ने कोई गलत काम तो नहीं किया परन्तु लीक से हटकर आप कोई काम करते हैं और उसमें असफलता हाथ लगती है, तब उस हताशा में आप लगातार ज़िंदगी के ग़लत फैसले लेने लगते हैं और आप जो हैं  उसपर परत-दर-परत अनेकों आवरण चढ़ा लेते हैं, तब आप अपने वजूद को खो देते हैं और ज़िंदगी के अनजान सफ़र पर निकल पड़ते हैं। स्थिति और भी भयावह हो जाती है जब उम्र के विभिन्न पड़ाव पर लिए गए फ़ैसलों का परिणाम आपकी अपनी आशाओं के विपरीत होता जाता है।


शिवांगी का जीवन भी इसी तरह की परिस्थितियों से गुजरा था। उसकी नींद अक्सर, पसीने से तर-ब-तर होकर खुल जाती, जब वह अपने जीवन की तमाम घटनाओं को एक साथ सपनों में देखती। इस तरह के सपनों को देखकर वह शुरू-शुरू में काफ़ी परेशान हो जाती। उसकी नींद कोसों दूर हो जाती परन्तु समय के साथ-साथ वह अपने इस दुःस्वपन को सहजता से लेने लगी। कुछ देर बेचैन रहती फिर नींद की आगोश में चली जाती और फिर उठती तो उसे वह स्वप्न याद भी नहीं रहता और अपने आपको तरोताज़ा महसूस करती। आज भी ऐसा ही हुआ परन्तु आज उसकी नींद जब खुली तो घड़ी दिन के ग्यारह बजा रही थी। आज वह अपने आपको तरोताज़ा महसूस नहीं कर पा रही थी। अपने आपको घसीटते हुए जैसे ही बिस्तर से उठी, तभी उसके मोबाइल की रिंग-टोन बज उठी। मोबाइल उठाकर देखा तो कॉल शालिनी भाभी की थी। 


भारी मन से फ़ोन को उठाते हुए शिवांगी बोली, “हेल्लो बड़ी भाभी।” 


उधर से कुछ देर चुप्पी के बाद एक रोती हुई आवाज़ आई, “शि, अम्मा जी नहीं रहीं।”


यह सुनकर शिवांगी का चेहरा भाव-शून्य हो गया। उसने कोई जवाब नहीं दिया। उधर से लगातार हेल्लो शि, हेल्लो शि, की घबराहट भरी आवाज़ आ रही थी। शिवांगी ने बिना कुछ जवाब दिए फ़ोन को डिस्कनेक्ट कर दिया। कुछ देर के बाद ही उसके बड़े भैया दिवाकर का फ़ोन आया। कॉल रिसीव कर, भारी आवाज़ में जवाब दिया “भैया, मैं ठीक हूँ।” यह कहकर उसने फ़ोन डिस्कनेक्ट कर दिया। 



 शिवांगी विगत पाँच वर्षों से अल्मोड़ा में रह रही थी। इस बात की जानकारी, उसकी बड़ी भाभी और  भैया को छोड़कर अन्य किसी रिश्तेदार को नहीं थी। शिवांगी को अपने परिवार में अगर किसी से आत्मीयता थी तो केवल उसकी बड़ी भाभी से और भाभी भी उसे स्नेहवश ‘शि’ कहकर पुकारती थी तो उसे भी किसी से जुड़े होने का एहसास होता था। ऐसा नहीं था कि शुरू से ही उसके संबंध बड़ी भाभी से सामान्य थे।


 शुरू में वह बड़ी भाभी को झिड़क देती थी और कहती, “ ये ‘शि-शि’ क्या लगा रखा है, मेरा नाम शिवांगी है, और आप मुझे इसी नाम से पुकारा कीजिए, प्लीज।” 


इस बेरुखी भरी आवाज़ को दरकिनार कर उसकी बड़ी भाभी हँसते हुए बोलती, “नंदरानी, आप कुछ भी कर लीजिए परन्तु मैं आपको छोटी बहन मानती हूँ और मैं आपको ‘शि’ कहकर ही बुलाऊंगी।” 


इन दोनों की तकरार को सुन कर, शिवांगी की माँ बोल पड़ती, “बहू, जब शिवांगी को ‘शि’ नाम पसंद नहीं है तो तुम इस नाम से क्यों पुकारती हो?”


तब शिवांगी बोल पड़ती, “माँ, आप हम दोनों के मामले में चुप ही रहें तो अच्छा है।”


बड़ी भाभी के साथ रहते-रहते, शिवांगी की  कब उनसे आत्मीयता बढ़ गई पता ही नहीं चला और तब उसे लगने लगा कि इस घर में उसे कोई समझता है तो वह उसकी बड़ी भाभी है। अब शि की आवाज़, जब भी कानों में पड़ती तो बावली होकर जोर से कहती, “आई भाभी!” 


पुरानी बातों को याद करते हुए शिवांगी की आँखों से आँसू छलक पड़े और आज भी उसे दुःख इस बात का है कि माँ से बढ़कर प्यार देने वाली भाभी को जब तक यह कह पाती कि भाभी आपकी शि शायद आपके बिना नहीं रह सकती परन्तु ऐसा हो न सका और तब तक भाभी,  भैया के साथ रहने बैंगलोर चली गईं।



 

शिवांगी का जन्म, तीन भाइयों के बाद हुआ था, तब उसकी दादी ने  इस गीत को गाकर पूरे घर को अपने सर पर उठा लिया था,  “तेतर बेटी राज दिलावे, तेतर बेटा राज बिलावे।”  क्योंकि, उनके खानदान में पहली लड़की पैदा हुई थी, वह भी तेतर। शिवांगी जब पैदा हुई थी तो घर के सभी सदस्य अपनी-अपनी पसंद के नाम से उसे पुकारते। उसकी दादी उसे ‘राजदुलारी’ बुलाती तो उसके छोटे चाचा ‘रानी’ बुलाते और उसके पापा ‘गुड़िया’ पुकारते। अब भी, संयुक्त परिवार में घर के मुखिया की ही चलती है। तो, उस जमाने में दादी को, बेटा-बेटी का नाम क्या हो, जैसे मामले में बहू की राय लेना तो जैसे अपने स्वाभिमान को स्वयं ठोकर मारने जैसा था। अतः शिवांगी का नाम राजदुलारी पड़ गया परन्तु जब राजदुलारी बड़ी हुई तो यह नाम उसे कुछ अटपटा-सा लगा। उसके स्कूल के सहपाठी उसे दुलारी-दुलारी कह कर चिढ़ाते। शिवांगी अपना सारा ध्यान पढ़ाई में देती इसलिए वह सदैव अपनी कक्षा में प्रथम आती और इसी कारण वह अपने शिक्षकों की प्रिय छात्रा थी।


जब वह दसवीं की बोर्ड परीक्षा का फार्म भरने लगी तो प्रधानाध्यापक के पास जाकर बोली, “सर, मैं अपना नाम बदलकर शिवांगी रखना चाहती हूँ।” 


प्रिंसिपल ने कहा, “राजदुलारी, नाम बदलने से क्या होता है? तुम में विलक्षण प्रतिभा है। मैं तुम्हारे नाम के आगे आई.ए.एस. लिखा देखना चाहता हूँ। वैसे इस विषय पर मैं तुम्हारे पिताजी से बात करूँगा।”


जब राजदुलारी का दसवीं बोर्ड का परिणाम आया तो  पूरे जिले में शिवांगी को प्रथम स्थान मिला था। अखबारों में राजदुलारी की तस्वीर छपी थी परन्तु नाम शिवांगी लिखा था। पापा-बेटी के बीच का राज़, आज उजागर हो गया था। नाम को लेकर नाते-रिश्तेदारों एवं पड़ोसियों के बीच उहापोह की स्थिति थी परन्तु जब वे सभी राजदुलारी के घर पहुँचे तो सब मामला समझ में आया। कोई कह रहा था, ये तो इंजीनियर बनेगी तो कोई डॉक्टर बनने का आशीर्वाद दे रहा था परन्तु शिवांगी पर तो बस आई.ए.एस. बनने का भूत सवार था। वह  इंटरमीडियट की  परीक्षा में भी अपने जिले में प्रथम रही। अब वह स्नातक  की पढ़ाई के साथ-साथ सिविल सर्विसेज की कोचिंग दिल्ली में रह कर करना चाहती थी। उसने अपने पापा से अपनी इच्छा बताई तो वह ख़ुशी से झूमकर बोले, “बेटा, तुमको जो बनना हो बनो।”

 

परन्तु जब उन्होंने दिल्ली में रहकर स्नातक की पढ़ाई के साथ-साथ सिविल सर्विसेज की तैयारी करने के लिए खर्चे के बाबत जानकारी जुटाई तो एक मध्यमवर्गीय परिवार के पिता की जैसे कमर ही टूट गई। पिताजी ने शिवांगी को घर पर रहकर स्नातक करने एवं उसके बाद एक साल के लिए दिल्ली में सिविल सर्विसेज की तैयारी करने की सलाह दी। यह सुनकर शिवांगी बहुत दुखी रहने लगी।

 

इधर उसके बड़े भाई की शादी तय हो गई थी और वह सगाई के लिए घर आया तो वह इस ख़ुशी के मौके पर भी, कहीं-न-कहीं मातम जैसा माहौल महसूस कर रहा था। शिवांगी को हमेशा उदास देखकर उसने सभी से पूछा कि शिवांगी आजकल चुप-चुप सी क्यों रहती है पर किसी ने संतोषजनक उत्तर नहीं दिया। अंत में उसने शिवांगी से पूछा तब वह  अपनी इच्छा एवं पिताजी की सलाह के बारे में बताते हुए सुबक पड़ी।


बड़े भाई से अपनी लाडली बहन को रोते हुए नहीं देखा गया। अगले दिन उसकी सगाई थी और घर में रिश्तेदारों का जमघट लगा हुआ था। उसने सुबह अपना सामान पैक करते हुए अपनी माँ से कहा कि मैं जा रहा हूँ और मैं अब पाँच साल तक शादी नहीं करूँगा, क्योंकि अब मैं अपनी बहन का सपना पूरा करूँगा, उसके दिल्ली में रहने एवं पढ़ाई का खर्चा मैं दूँगा। इस फैसले को सुनकर  शिवांगी की माँ की आँखों में आँसू आ गए। ये आँसू एक तरफ अपने बेटे पर गर्व होने के थे तो दूसरी तरफ बड़े बेटे की गृहस्थी बसने से पहले टूटने के गम के भी थे । 

बड़े बेटे ने माँ से कहा, “माँ, इस बात को किसी को बताना नहीं और कोई बहाना बनाकर इस सगाई को तोड़ देना।”


माँ ने रोते हुए बेटे से कहा,  “कैसी बच्चों जैसी बात करते हो? सगाई कोई गुड्डे-गुड़िया का खेल है, लड़की वालों एवं नाते-रिश्तेदारों को हमलोग क्या जवाब देंगे?”


“मैं कुछ नहीं जानता। तुम किसी भी तरह इस समस्या का समाधान निकालो, मैं तो चला।”  कहकर दिवाकर माँ के  चरणस्पर्श कर घर से निकल पड़ा। स्तब्ध माँ, अपने बड़े बेटे को आशीर्वाद भी नहीं दे पायी, बस एकटक उसे जाते हुए देखती रही।


जब तक ज़िम्मेदारी का बोझ कंधे पर ना हो, तब तक इस तरह के असामाजिक निर्णय युवा लेते रहते हैं और इसलिए प्रत्येक काल में दो पीढ़ियों का अंतर सदैव रहा है और इसका ख़ामियाज़ा दोनों पीढ़ियों में से किसी एक को भुगतना पड़ता है।


एक तरफ बेटी का भविष्य और दूसरी तरफ बेटे का एकतरफा निर्णय, माँ को विचलित कर रहा था। वह पसीना-पसीना हो रही थी। उसे चक्कर आने लगे। वह सर पकड़कर पलंग पर बैठ गई। वह अचेत होकर कब गिर गई, उसे पता ही नहीं चला। उसकी तन्द्रा जब टूटी तो उसने अपने आप को नाते-रिश्तेदारों के बीच घिरा हुआ पाया। उसका सर उसके पति सत्यनारायण की गोद में था।

 

उसकी सास ने उसके सर पर हाथ फेरते हुए पूछा,  “कैसी हो बहू? क्या हो गया था?”


“मैं ठीक हूँ।” अपनी बहू का उत्तर सुनकर शिवांगी की दादी ने सबको जाने का इशारा किया। सभी फुसफुसाते हुए कमरे से बाहर चले गए।


तब उसके पति ने कहा, “जब मैं कमरे में आया तो तुम बेहोश थीं। माँ ने जब पानी के छींटे मारे तो तुम्हारी चेतना वापस आई। मैं तो बुरी तरह से घबरा गया था।”


सास ने रूँधे गले से फिर पूछा, “क्या बात हो गई थी? देखो तो तुम्हारा चेहरा एकदम सफ़ेद हो गया है।”

तब उसने कहा, “अम्मा जी, अब सगाई नहीं होगी। दिवाकर वापस चला गया।”


इतना सुनते ही सत्यनारायण ने झटके से उसके सर को अपने गोद से हटाकर बिस्तर पर रख दिया और बाहर की तरफ तेजी से चले गए।



सत्यनारायण को आवेगपूर्ण अवस्था में बाहर जाते देख, उनका छोटा भाई भी उनके पीछे-पीछे हो लिया और जैसे ही इस घटना की खबर इस घर के अन्य पुरुषों को मिली, सभी आवेग के साथ बाहर निकल पड़े।

 

महेश भी तेज कदमों से चलते हुए, अपने बड़े भाई सत्यनारायण को पुकार रहा था परन्तु सत्यनारायण उसका कोई जवाब नहीं दे रहे थे। महेश ने आजतक अपने बड़े भाई को इतनी तीव्र गति से चलते हुए नहीं देखा था। जब सत्यनारायण को एक ऑटो-रिक्शा को रुकने का इशारा करते हुए महेश ने देखा तब वह दौड़कर सत्यनारायण के पास पहुँच गया और सत्यनारायण से पूछा, “ भैया क्या बात हो गई, आप कहाँ जा रहें हैं?”


सत्यनारायण ने कहा, “ मैं अभी रेलवे स्टेशन जा रहा हूँ। मेरे पास समय बहुत कम है, तुम्हें घर आकर सब बताता हूँ।”


यह कह कर सत्यनारायण ऑटोरिक्शा में बैठा तो साथ में महेश यह कहते हुए बैठ गया, “भैया मैं भी आपके साथ चलूँगा ।”


जब दोनों भाई रेलवे स्टेशन परिसर पहुँचे तो उनके सामने से बैंगलोर जाने वाली सुपरफास्ट ट्रेन जा रही थी। उस जाती हुई ट्रेन को सत्यनारायण निराशा भरी नज़रों से एकटक देख रहा था। जब उसके सामने से अंतिम डिब्बा गुजरा तो सामने काले रंग की दीवार पर पीले रंग के क्रॉस को, सत्यनारायण ऐसे देख रहा था, मानों जीवन जीने के सभी रास्ते बंद हो गए हों। सत्यनारायण निढाल होकर पास के बेंच पर बैठ गया।


महेश ने अपने बड़े भाई से पूछा, “ भैया! भैया क्या हुआ, कुछ बोलते क्यूँ नहीं?”


तब सत्यनारायण ने मायूसी भरी आवाज़ में कहा, “छोटे, क्या बताऊँ? मैं अब किसी को अपना चेहरा दिखाने लायक नहीं रहा। अपनी सगाई तोड़कर इस ट्रेन से दिवाकर बैंगलोर चला गया, अब मैं लड़की वालों को क्या जवाब दूँगा ?”


यह सुनकर महेश सकते में आ गया। उसे यह तो अनुमान था कि कुछ अप्रिय घटना तो हुई है परन्तु उसके लिए यह विश्वास करना मुश्किल था कि दिवाकर जैसा सुशील, जिम्मेदार और आज्ञाकारी लड़का, जो कलतक अपनी सगाई को लेकर बहुत खुश था। वह अचानक ऐसा कैसे कर सकता है?

 

कुछ देर दोनों भाई मौन बैठे रहे, उसके बाद सत्यनारायण ने कहा, “चल छोटे!” सत्यनारायण झटके के साथ खड़ा हो गया। दोनों स्टेशन के बाहर आ गए। सत्यनारायण ने एक ऑटो वाले को होटल अप्सरा चलने को कहा और दोनों भाई ऑटो में बैठ गए। जब वे होटल परिसर में उतरे तो वहाँ पहले से उनके कुछ रिश्तेदार खड़े थे। सबने दोनों भाइयों को घेर लिया, तब सत्यनारायण ने कहा, “आप सब यही रुकें या घर चलें, मैं अभी लड़की वालों से बात करने जा रहा हूँ।” 


यह कहकर दोनों ने होटल के अंदर प्रवेश कर गए और उन्होंने ‘कमरा नंबर 302’ के दरवाजे को खटखटाया तो एक भद्र पुरुष ने दरवाजा खोला। सामने सत्यनारायण को देखते ही दोनों हाथ जोड़कर बोला, “और समधी साहब कैसे हैं, सब राज़ी-ख़ुशी हैं ना।” 


सत्यनारायण ने कहा, “सब ठीक है, चलिए अंदर चलकर बात करते हैं।”


जैसे ही तीनों कमरे के अंदर पहुँचे। बिस्तर पर लेटी महिला, झट से उठ बैठी और सशंकित आवाज़ में “प्रणाम, समधी जी”,  बोलकर अपने कपड़ों को ठीक करते हुए खड़ी हो गई। 


दोनों भाई कुर्सी पर बैठ गए और भद्रपुरुष उनके सामने बिस्तर पर बैठ कर गले को साफ़ करते हुए बोले, “हुक्म कीजिए समधी साहब।”


सत्यनारायण ने हाथ जोड़कर ग्लानि भरे शब्दों में कहा, “आप मुझे माफ़ कर दें, ये सगाई नहीं हो सकती।” 


इतना सुनते ही भद्रपुरुष का धैर्य टूट गया और लगभग चीखते हुए बोला, “क्या मजाक कर रहें हैं सत्यनारायण बाबू। आपको अंदाजा भी है कि इसका परिणाम क्या होगा? मेरे परिवार और बेटी की समाज में क्या इज्जत रह जायेगी।” 


इतना सुनते ही महिला दहाड़ मारकर रोने लगी। इस तरह का कोलाहल सुनकर उनके सगे रिश्तेदार भी अंदर आ गए। पूरी बात सुनने के बाद भद्रपुरुष को उनके रिश्तेदारों ने समझाया कि इसमें सत्यनारायण बाबू की कोई गलती नहीं है, ये तो अच्छा हुआ कि इनके बेटे ने सगाई तोड़ दी अगर सगाई के बाद कुछ गड़बड़ हो जाती तो और भी बुरा होता। कुछ देर कमरे में मातम छाया रहा । महिला अभी भी सुबक रही थी। दोनों भाई हाथ जोड़कर सिर को झुकाए हुए बाहर निकल आए। बाहर उनके परिजन इंतज़ार में खड़े थे। आसमान पर लाली छाई हुई थी। पंछी अपने-अपने घोसलें में जाने के लिए आसमान में उड़ान भर रहे थे परन्तु सत्यनारायण को अपने घर जाने की इच्छा नहीं हो रही थी। ऐसी परिस्थितियों में व्यक्ति की समझ शक्ति कमजोर पड़ जाती है और वह अवसाद में घिर, अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेने की भी गलती कर बैठता है। ऐसा ही कुछ भाव सत्यनारायण के मन में भी आ रहा था परन्तु सगे-संबंधियों के समझाने पर वे घर को चल पड़े।

 

भविष्य के गर्त में अपना एवं अपनों के साथ क्या होगा यह जानने की इच्छा तो सभी को रहती है परन्तु भूतकाल के गर्त में किसी के साथ क्या हुआ था, यह जानने के लिए भी सभी उत्सुक रहते हैं और इसी के कारण अफवाहों का बाज़ार सदियों से गर्म रहा है। निजी संबंधों के बारे में तो शायद किसी को भी नहीं पता रहता या चंद लोगों को ही पता रहता है कि घटना के पीछे का वास्तविक राज़ क्या था? 


जैसे ही यह खबर पड़ोस में फैली कि दिवाकर, अपनी सगाई तोड़कर चला गया तो पड़ोस की महिलाओं की एक मंडली दिवाकर के घर के सामने खड़े होकर तरह-तरह की बातें करने लगीं। जिसको सुनकर शिवांगी का चेहरा तमतमाने लगा। वह सबसे लड़ने को उध्दत हुई तो उसको उसकी दादी ने उसे रोका और कुछ देर के बाद स्वतः सभी महिलाएँ अपने-अपने घर को चली गईं।


 

सूर्य का रथ पश्चिम दिशा में लुप्त हो चुका था और पूर्णिमा का चाँद अपने पूरे  यौवन पर था, मगर इस घर के चाँद को मानो ग्रहण लग गया था। शिवांगी के साथ-साथ इस घर की सारी महिलाएँ, एक अनजान अशुभ घटना की आशंका को दिल में लिए भावशून्य नज़रों से मुख्य दरवाजे को एकटक देख रही थीं। तभी उधर से, घर के सभी पुरुषों ने गर्दन झुकाए मुख्य दरवाजे से प्रवेश किया। सभी औरतों की बेचैन नज़रें अपने-अपने पति, बेटे एवं भाई को ढूँढ रहीं थी और अपने स्वजनों को देखकर उनका मन शांत हुआ।


शादी का घर, जहाँ उत्सव होना था। उस आँगन में अब मातम पसरा था। सभी पुरुष नीचे बिछे कालीन पर बैठ गए।  कुछ औरतें दौड़कर सभी के लिए पानी ले आई। पानी पीने से पुरुषों का क्लांत कुछ कम हुआ परन्तु भूखी-प्यासी स्त्रियों  का हाल अभी भी वैसा ही था। 


शिवांगी की दादी ने  सत्यनारायण के सिर पर हाथ फेरते हुए,  सूखे गले से पूछा, “ बेटा, दिनभर तुम कहाँ थे ?” उनके मन में बहुत से सवाल थे परन्तु इस संक्षिप्त सवाल को पूछ कर आँखों के एक कोर से आते आँसुओं को अपने पल्लू से पोंछा। तब सिर नीचे किए हुए गंभीर आवाज़ में सत्यनारायण ने सभी घटनाओं को सिलसिलेवार ढंग से सुना दिया। 


सभी महिलाओं ने ध्यान से उनकी बातें सुनी। तब सत्यनारायण की बुआ ने कहा, “बेटा, होनी को कोई टाल नहीं सकता, तुमने तो दिवाकर की ज़िन्दगी संवारनी  चाही, मगर इतनी सुन्दर और सुशील लड़की के साथ अपनी सगाई तोड़कर चला गया तो तुम क्या कर सकते हो और सोचो! हमलोगों से ज्यादा विपत्ति तो लड़की वालों पर आई है । जरूर कोई-न-कोई दक्षिण की जादूगरनी ने दिवाकर को अपने हुस्न के जाल में फँसा लिया है। खैर, हमलोग कर भी क्या सकते हैं। जवान खून पर अब तो हमलोगों का बस भी नहीं चलता। अब चलो! मुँह-हाथ धोकर कुछ खा-पी लो।”


इतना सुनते ही शिवांगी की माँ का चेहरा तमतमा सा गया कि श्रवण जैसे बेटे पर ऐसा लांछन  लगाया जा रहा है। वह अपने बेटे की विवशता सभी को बताना चाह रही थी परन्तु मुँह बंद ही रखा। क्योंकि अगर सभी को सच्चाई पता चली तो शिवांगी को सभी कोसना शुरू कर देंगे।


रात हुई सभी ने बेमन से खाना खाया और अपने-अपने परिवार के साथ सोने चले गए, मगर किसी की आँखों में नींद नहीं थी। सभी अपनों के साथ इस घटना को लेकर अलग-अलग कयास लगा रहे थे। फुसफुसाहट की आवाज अलग-अलग कमरों से आ रही थी।


रात भर सत्यनारायण खुली आँखों से बिस्तर पर करवट बदलता रहा। उसकी इस दयनीय हालत को देखकर, उसकी पत्नी सारी घटना को उसे बता देना चाहती थी परन्तु वह जानती थी कि खाते-पीते घर का कोई पुरुष अपनी मर्दानगी में कमी एवं आर्थिक तंगहाली का ताना बर्दाश्त नहीं कर सकता, वह भी पत्नी के मुख से परन्तु आज तक उसने अपने पति से कोई बात नहीं छुपाई थी। अक्सर रात को सोने के समय दिन भर की छोटी से बड़ी बात, वे एक-दूसरे से साझाकर के ही सोते थे परन्तु आज दोनों एक-दूसरे से अपने दिल की बात साझा नहीं कर पाने कारण बेचैनी के साथ रात गुजारने को मजबूर थे।


इधर शिवांगी भी दादी के साथ सोने का उपक्रम कर रही थी। उसका चेहरा अनजान भय के कारण पीला पड़ गया था। पूरी बात तो उसे पता नहीं थी परन्तु बड़े भाई के इस तरह से जाने के पीछे वह अपने आपको दोषी मान रही थी। तभी उसकी दादी ने शिवांगी से पूछा, ”तुम्हें तो पता ही होगा कि दिवाकर सगाई तोड़कर क्यूँ चला गया?”


शिवांगी ने रोते हुए कहा, “नहीं दादी।”


दादी ने गुस्से में कहा, “मुझे सब मालूम है, जरूर तुम दोनों, हमलोगों से कोई न कोई बात छुपा रहे हो। अरे! दिवाकर को अगर कोई मद्रासन जादूगरनी पसंद ही थी तो पहले ही बता देता, इतनी नौटंकी करने की क्या जरूरत थी। तुमलोगों ने भी अगर यह बात मुझे बताई होती तो झाड़-फूंक से सब ठीक करा देती और उस मद्रासन का भूत, यूँ छू-मंतर हो जाता।” 


शिवांगी ने तमकते हुए कहा, “दादी, हमलोगों को कुछ भी मालूम नहीं था और न ही भैया का किसी के साथ कोई चक्कर है।” 

 

दोनों में एकमत नहीं होने के कारण संवाद बंद हो गया और कमरे में नीरवता छा गई।


स्त्रियों की छठी इंद्री बहुत तेज होती है और बहुधा उनके द्वारा सोचा गया विचार, कभी-कभी सत्य घटित होने के कारण,  उन्हें यह हमेशा विश्वास हो जाता है कि जो मैंने सोचा है वैसा ही हुआ होगा। स्त्रियों की ऐसी सोच, कभी-कभी तो अच्छा फल देती है परन्तु गृह-क्लेश के पीछे का मुख्य कारण भी यही होता है। स्थिति और भयंकर हो जाती है जब कुछ भी नहीं जानते हुए भी एक स्त्री यह दावा करती है कि दूसरा इंसान यही सोचता है या यही किया है।





 


8 comments:

  1. स्वागत आपके नए ब्लॉग का।

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  2. आभार विश्वमोहन भाई जी।

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  3. शुभकामनाएं भाई। बहुत ही सुंदर लिखा है आपने अंतस में उठे अनेकों प्रश्नों के साथ... अभी तक पूरा नहीं पढ़ पाई।
    जल्द ही समीक्षा लिखूँगी।
    सादर प्रणाम

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  4. मध्यमवर्गीय परिवार की कश्मकश भरी पारिवारिक माहौल का बहुत ही सुन्दर चित्रण देखने को मिला
    बहुत-बहुत हार्दिक बधाई आपको इस नए ब्लॉग के लिए

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