उपन्यास ढाई कदम के लिए  

शुभकामनाएँ एवं समीक्षाएँ

उपन्यास‘ढाई कदम’ पर मेरे साहित्यकार गुरुओं और मित्रों की चुनिंदा शुभकामनाएँ एवं समीक्षाएँ सादर आभार के साथ प्रस्तुत हैं। :- 

1.

आज समाज के हर वर्ग के अपने लेखक हैं। ऐसा लगता है मानो लेखक न हुआ किसी समूह विशेष का प्रवक्ता ही हो गया! लेकिन सफल कथाकार वही है जो अपनी दृष्टि को बड़ी कर के दूसरे के दर्द को शब्दबद्ध करता है। 'ढाई कदम' का लेखक यही करता है। कुछ आप बीती और कुछ जग बीती लिखकर भुक्तभोगी लेखक ने पाठकों को श्रेष्ठ साहित्य के दोनों फल 'आनंद और शिक्षा' अनायास ही प्रदान कर दिये हैं। मैं इन्हें साधुवाद और शुभकामना देता हूँ। 

भवदीय

प्रो. गोपाल शर्मा डिपार्टमेंटऑफ इंग्लिश लैड्ग्वेज एंडलिटरेचर

अरबामींच यूनिवर्सिटी अरबा मींच 

इथियोपिया( अफ्रीका)


2.

एक सफल उपन्यासकार सूक्ष्मदृष्टि लेकर जब इस तरह का उपन्यास रचता है तो सबसे पहले उसे इस बात की बधाई कि उसने सदियों से चली आ रही नारी की उस पीड़ा को उठाने का बीड़ा अपने कंधे पर लिया है। इस सकारात्मक सोच के साथ, नारी की व्यथा, कथा के रूप में आपके उपन्यास में साफ झलकती है। नारी की कशमकश और उसके आत्म सम्मान से खिलवाड़ करने वाला समाज केवल उसकी अस्मिता पर ही सवाल खड़ा कर देता है? उसे धर्म और समाज की मान्यताओं में इस तरह जकड़ देता है कि वह जननी होने के अपने गुण के बाद भी,  समाज में दोयम दर्जे की नागरिक के रूप में जीने के लिए मजबूर है। आज के उपन्यास का शीर्षक 'ढाई कदम' नारी को सामाजिक कुरीतियों के बंधन और पुरुष वाली मानसिकता से आगे बढ़ने का साहस प्रदान करता है। यह सफल उपन्यास अपनी कथावस्तु के माध्यम से समाज में नारी की परिस्थितियों और उनसे लड़ने की सीख देता है।

अभिषेककांत पाण्डेय-पत्रकार 

पत्रकारिता एवं जनसंचार में परास्नातक, फोटोजर्नलिज्म एंड विजुअल कम्यूनिकेशन में डिप्लोमा, शिक्षा में स्नातक, केंद्रीय शिक्षक


3.

मैंने साहित्य की अनेकशः विधाओं में खूब डूब के लेखन किया है किन्तु उपन्यास लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। उपन्यास लेखन मैं साहित्य की सबसे कठिन विधाओं में गिनता हूँ। बहुत संयम, परिश्रम, भाषा और विषय वस्तु पर मजबूत पकड़ हो तभी उपन्यास का लेखन कर पाना संभव हो सकता है। श्री राकेश राही के उपन्यास ‘ढाई कदम’ के प्रकाशन पर मैं इन्हें अनंत बधाइयाँ देता हूँ। नारी को सिर्फ़ उपभोग की वस्तु समझने वाले पुरुषों के मुँह पर तमाचे का काम करता यह उपन्यास अवश्य ही खूब-खूब चर्चा पाएगा, ऐसा मेरा गहरा विश्वास है। 

अशोक अंजुम- पत्रकार

बी.एस-सी, एम्.ए( अर्थशास्त्र, हिन्दी) बी.एड.


4.

कहानी व पात्र के हिसाब से उपन्यास का शीर्षक 'ढाई कदम' सही प्रतीत होता है। बड़े लक्ष्य व बड़ी संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए बड़े बड़े शहरों की ओर जाने और उन लक्ष्यों की पूर्ति के दरम्यान जीवन में भोगे जाने वाले यर्थाथ का वास्तविक चित्रण उपन्यास की आत्मा कही जा सकती है। अशेष शुभकामनाएँ। 

-अमरेन्द्र सुमन, 

दुमका, झारखंड


5.

स्त्रियों ने जमीन पर पांव रखते हुए भी आसमान में अपनी संभावनाओं का परचम लहराया है। बावजूद इसके अभी उसकी संघर्ष यात्रा को विराम नहीं मिला। वो अपने पूर्ण अस्तित्व, अस्मिता और खुद को जिंदगी में बराबर का भागीदार बनाए जाने के लिए लंबी लड़ाई लड़ रही है। अच्छी खबर यह है कि धीरे-धीरे ही सही मगर मैदान उसके हाथ आ रहा है। उसकी राह में सबसे बड़ी बाधा है- हमारे मन में व्याप्त विकार, स्त्री को एक शिकारी की आंखों से देखना, दोहरा आचरण और पतित चरित्र। उम्मीद है, उपन्यास की नायिका शिवानी स्त्री जाति के लिए प्रेरणा बनते हुए और उन्हें जद्दोजहद से निकालते हुए उनमें मंजिल के प्रति एक नया उत्साह, नई तरंग का संचार करेगी।

अंजनी श्रीवास्तव- पत्रकार

बीएससी,पीजीडीआईएमएम,डिप्लोमा इन ट्रांसपोर्ट मैनेजमेंट


6.

भारतीय परिवेश में एक स्त्री के उद्विग्न मन और वर्तमान समय के बीच स्वयं को स्थापित करने की जिस ऊहापोह का विषय आपकी रचना में दिखाई पड़ता है वह जीवंत रूप में समाज को नूतन तर्क पर आधारित समावेशी जीवन और सम्मानयुक्त परिवेश बनाने की ओर उन्मुख होने का संदेश प्रसारित करने मे सफल जान पड़ता है। 

-देवेन्द्रकुमार राय, 

भोजपुर,बिहार 


7.

उत्तम उद्देश्य के लिए पुरुषार्थ हेतु आपको अनेकों शुभ कामनाएँ।

कविता गुप्ता, कैनेडा 

एम.ए.B.Ed.B.AHons.(हिन्दी)


8.

नारी सदैव ही सामाजिक नीतियों और रीतियों के दबाव में बोझिल जीवन जीती आयी है। पुरुषों की अपेक्षा उसका जीवन-संघर्ष सदैव ही दुष्कर और दुःखद रहा है और वे एक दायरे में सिमटकर विवशता से जीवन यापन करती रहीं हैं। इसके वावजूद और विपरीत ऐसी नारियों की कहानियां भी समाज के सामने आयीं हैं, जिन्होंने दृढ़ संकल्प और साहस से इन चुनौतियों का सामना किया है और मिसाल बनकर नारी शक्ति की पहचान देकर हताशा और निराशा से जीती नारियों में संजीवनी बन के मृतप्रायः स्थिति से उबारा है और उनमें जीने की ललक पैदा की है। भाई राकेश कुमार श्रीवास्तव 'राही' जी का यह उपन्यास 'ढाई कदम' ऐसी ही नारी के जीवन की कहानी का सशक्त और सफल चित्रण है, जिसने सामाजिक परिवेश में व्याप्त छद्म आचरण और विश्वासघाती चरित्र रखने वाले पुरुषों के मनोविकारों से साहस, धैर्य और दृढ़ संकल्प के साथ अन्य सामाजिक चुनौतियों के साथ सामना ही नहीं किया, बल्कि सामाजिक दंश से निर्भीकता से जूझने की मिसाल प्रस्तुत की है। आशा ही नहीं मेरा पूर्ण विश्वास है कि उपन्यासकार भाई राकेश ‘राही' जी का यह उपन्यास 'ढाई कदम' अपने उद्देश्य को सफल और सार्थक करेगा।बहुत-बहुत बधाई। शुभकामनाएं। नमनसृजन।

नरेन्द्र श्रीवास्तव ,

गाडरवारा,म.प्र.


9.

'ढाई कदम' उपन्यास भारतीय मनीषा के संघर्ष को व्यंजित करते हुए एवं वर्जनाओं को तोड़ते हुए अस्मितापूर्ण जीवन जीने की नारी की एक करुण जीवनगाथा है। भारतीय नारी आज संघर्ष करते हुए अपनी पहचान खुद बना रही है तथा पुरुष प्रधान समाज को अपनी रूढ़िवादी सोच को बदलने के लिए विवश भी कर रही है। आज नारी को समाज व राष्ट्र का अभिशाप नहीं अपितु वरदान माना जाने लगा है। यह उनके संघर्ष की करुण गाथा का ही प्रतिफल है। ‘ढाई कदम’ उपन्यास सभी महिलाओं को दो कदम से आगे बढ़ कर संघर्ष करने की प्रेरणा देती है जो सर्वथा स्तुत्य है।

डॉ.सुबोध कुमार शांडिल्य, गया(बिहार),

एम.ए-हिन्दी एवं ग्रामीण विकास, यू.जी.सी.नेट उत्तीर्ण(हिन्दी) पीएच.डी


10.

राकेश ‘राही’ जी, ढाई कदम उपन्यास का शीर्षक बेजोड़ एवं दिलचस्प है, जो पाठक वर्ग को अनायास ही आकर्षित कर लेता है, तथा एक मन में तीव्र जिज्ञासा उत्पन्न करता है। इसकी विषयवस्तु एक भारतीय नारी के संघर्ष की अनमोल कहानी है, जो लेखक की प्रतिभा का प्रतिबिम्ब है। 

रामदयाल रोहज,एम.ए.,बी.एड,

 गाँव-खेदासरी, हनुमानगढ़(राज.) 

 11.

उपन्यास "ढाईकदम" पर प्रतिक्रिया

ढाई दिन के शहंशाह निजाम सिक्का का किस्सा पढ़ा-सुना था, ढाई दिन का झोंपड़ा भी देखा था, ढाई मिनट कदमताल करके एक मील चलने का लाभ घर में ही लिया जा सकता है, इसका अनुभव भी किया था। ढाई कदम उपन्यास पढ़कर यह सब याद आ गया था। उपन्यास "ढाई कदम" की मुख्य पात्र शिवांगी नामक एक स्त्री है, जो स्त्री होने के दंश को झेलती हुई, अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न चुनौतियों का सामना करते हुए आगे बढ़ती है। पहला कदम तो मंजिल का प्रारंभ होता है, यह सोचकर वह संघर्ष करती रही। दूसरे कदम में भी समाज में व्याप्त मनोविकारों से संघर्ष करना ही उसकी नियति में लिखा था। पुरुष तो अक्सर ढाई कदम चलकर सब कुछ भुला देता है, पर स्त्री होने के नाते भावुक शिवांगी ऐसा नहीं कर पाई। 'राधा और मीरा का जीवन कोई पुरुष जी ही नहीं सकता', कह कर वह अनुराग को भी बैरंग लौटा देती है और प्रशांत को भी। पार्वती के समान पवित्रता का जीवन जीने को इच्छुक शिवांगी को अब तीसरा कदम सोच-समझ कर उठाना था, इसलिए ही सम्भवतः वह ढाई कदम ही चल पाई। 

राकेश कुमार श्रीवास्तव 'राही' का यह उपन्यास आज-कल के सामाजिक परिवेश में फैले मनोविकार, छद्म आचरण और विश्वासघात के महीन रेशों में फंसी एक स्त्री के लिए अपने लक्ष्य की तरफ कदम उठाने के संघर्ष एवं सफलता या असफलता के परिणाम पर जीवन दिशा बदलने की जद्दोजहद की कहानी है, जो  पाठक को जीवन दिशा बदलने की जद्दोजहद के चलते भी एक नया रास्ता खोजने की प्रेरणा देने में सहायक है। पढ़ाई के लिए अकेले रहने के दौरान छात्रों को क्या-क्या मुश्किलें आती हैं, इसका अनुमान लगाना शायद मुश्किल हो, लेकिन दुनिया ऐसे ही चलती है। विद्यार्थी का कर्म है, अध्ययन करना और यही करना उसकी साधना है, यह तभी तक साधना रहती है, जब तक लक्ष्यपर नजर टिकी रहे, अन्यथा सब बेकार हो जाता है। कच्ची उम्र की दुश्वारियाँ, एक तरफा प्यार का दुष्परिणाम, संयुक्त परिवार की अपनी एक परम्परा को प्रोत्साहन, असफल होने पर संयुक्त परिवार की छांव बन जाना आदि इस उपन्यास की विशेषताएं हैं। 

110 पेज एवं 8 खंड का यह उपन्यास प्रकृति की सुंदरता की प्रतीकात्मकता से सुसज्जित है। इसे उपन्यास की इन पंक्तियों में देखा जा सकता है-

“आकाशमें पूनम का चाँद सदैव की भाँति, अपनी रोशनी से सभी को नहला रहा था। चाँदनी रात में सितारे टिमटिमा रहे थे, तभी पूनम की रात अमावस्या की रात में तब्दील हो गई। एक बहुत बड़े काले बादलों के समूह ने चाँद को पूरी तरह से ढँक लिया था और तारे बेबस होकर बादलों की करतूत को देख रहे थे।''

प्यार के अंत और प्रकृति के सामंजस्य को देखिए- ''सूरज ढल चुका था, अपने घोंसले की तरफ जाने के लिए पक्षी कोलाहल करते हुए आज की अंतिम उड़ान भर रहे थे।''

प्राची डिजिटल पब्लिकेशन, मेरठ, उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित इस उपन्यास की साहित्यिक हिंदी भाषा का अनवरत प्रवाह आगे की कथा को जानने की उत्सुकता बढ़ाने में तो समर्थ है ही, अनेक सामाजिक समस्याओं के समाधान में भी सक्षम है। 

लीला तिवानी, दिल्ली  

हिंदी में एम.ए., एम.एड. 


12.

उपन्यास "ढाईकदम" की समीक्षा

उपन्यास "ढाई कदम" जीवन की सफलता व असफलता के मध्य के उन कदमों/राहों की ओर ध्यान आकृष्ट करता है, जिनके लिए आज अधिकतर मानव को संघर्ष करना पड़ रहा है। समता व विषमता को इंगित कर जीवन में आने वाली अनुकूलताओं व प्रतिकूलताओं से सचेत करता है और इन स्थितियों से सफलतापूर्वक उभरने का ज्ञान प्रदान करता है।

निश्चित ही वर्तमान में कुछ व्याप्त सामाजिक प्रतिकूलतायें नारी को समाज में आगे बढ़ने हेतु अनेकानेक अवरोध पैदा करती हैं, जो हमारे समाज की सबसे बड़ी विडम्बना भी है, क्योंकि जहाँ नारी को साक्षात् देवी माना जाता है, वहीं समाज के कुछेक लोग उनकी मजबूरी का लाभ उठाकर अपने घृणित मंसूबों को अंजाम देते हैं,जो समाज के लिए कलंक हैं।

"ढाई कदम" उपन्यास के माध्यम से उपन्यासकार ने समाज की इन बुराइयों की ओर संकेत करके समाज को नारी की मजबूरियों को अपनी स्वार्थसिद्धि का हथियार बनाने के बजाय उनकी प्रगतिवादी इच्छाओं को गहराई से महसूस कर उनका सहयोग करने का संदेश देने का सफलतम प्रयास किया है। नारी के प्रगतिवादी विचार उसके स्वयं के विकास के साथ-साथ परिवार व समाज का भी विकास करते हैं। नारी किसी भी परिवार व समाज की वह धुरी है, जिसके इर्द-गिर्द ही उस परिवेश की उन्नति का पहिया चलायमान रहता है, उसके अव्यवस्थित होने से संपूर्ण सामाजिक व्यवस्था लड़खड़ाने लगती है। इसलिए नारी का सम्मान ही, समाज की प्रगति का पहला चरण है।

उपन्यास की नायिका 'शिवांगी' के माध्यम से उपन्यासकार एक स्त्री की उन्नति में आने वाले इस प्रकार के प्यार-प्रेम को बहुत बड़ी बाधा मानता है, जो प्यार उसके रुप-सौन्दर्य के आकर्षण के कारण हुआ हो और वासना से पूरित हो, उस प्रेम को उपन्यासकार ने किसी भी नारी के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ी चुनौती बताने का प्रयास किया है, जो निश्चित ही सच्चाई भी है। जिसने सभी को जागरूक रहना नितांत आवश्यक है।

उपन्यासकार का यह साहित्यिक सद्कृत्य समाज में समय-समय पर हो रही नारियों की अस्मिता के साथ खिलवाड़ को रोकने तथा इस बुराई से समाज को सचेत करने एवं इस प्रकार की प्रतिकूलता से लड़ने की शक्ति प्रदान करने वाला है। उपन्यासकार को इस अत्यंत महत्वपूर्ण व उपयोगी उपन्यास के सृजन हेतु बहुत बहुत बधाई तथा साधुवाद संप्रेषित है। सामाजिक जागरूकता पर उपन्यासकार की कलम निरंतर अपना मार्गदर्शन करती रहे, इस हेतु हार्दिक शुभकामना। सादर सद्भावनाओं सहित,

शम्भु प्रसाद भट्ट "स्नेहिल", 

श्रीनगर,उत्तराखंड


13.

उपन्यास "ढाईकदम" की समीक्षा

किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति हेतु एकाग्रचित व संयमित होना अत्यंत आवश्यक है किन्तु,लक्ष्य के लिए यदि लम्बी दूरी तय करनी हो, फिर तो मार्ग में एक-दो पड़ाव ऐसे भी जरूर आते हैं, जहाँ पर पहुँच कर लोग विचलित होने लगते हैं, आत्मविश्वास डगमाने लगता है, रास्ते कठिन प्रतीत होने लगते हैं। और फिर लक्ष्य के प्रति चिंता का उद्भव मस्तिष्क में इस कदर होता है कि वह समस्त बंधनों से मुक्त होकर सिर्फ और केवल लक्ष्य के प्रति ही समर्पित होना चाहता है। किन्तु यह जीवन है, जहां किसी भी राह पर चलें, डगर में अनेकों लोगों से जुड़ाव स्वाभाविक है और उनमें से कुछ एक के साथ भावनात्मक सम्बन्ध भी बनते ही हैं और उन भावनाओं के आवेग में लोग बंधते चले जाते हैं। फिर जब उन्हें अपने लक्षित डगर का आभास होता है, वे समस्त बंधनों से सहयोग लेने के बजाय, अपने मार्ग की बाधा मानकर ठोकर मार आगे निकल जाना चाहते हैं, परंतु क्या यह इतना आसान है कि रिश्तों का बंधन सहजता से छूट सके। और फिर वो व्यथित होकर, बेचैनियों को अपनाये, विचलित होते रहता है, जो उनके लिए असफलता का मूल साबित होता है। परन्तु जैसा कि आपने कहा है, क्या आसान होता है, तीन पग बढ़ाने के बाद आधा पग पीछे खींचना? जब एक सामान्य व संयुक्त परिवार की लड़की कोई बड़ा लक्ष्य निर्धारित करती है, तो परिवार के सभी सदस्य उसके सपनों को पंख देने के लिए तत्पर हो जाते हैं तथा जैसा की अक्सर देखने को मिलता है, सामान्य परिवार में किसी भी लक्ष्य प्रप्ति की राह में आर्थिक परेशानियां सर्वप्रथम मुंह खोल खड़ी हो जाती हैं। परन्तु यह भी सत्य है कि जब भी कोई अपने सपनों के लिए तत्परता दिखाता है, एक-न-एक मार्ग हमेशा खुला रहता है, चाहे इस के लिए किसी को अपनी छोटी-बड़ी खुशियों का त्याग ही क्यों न करना पड़े। परन्तु जब वह कस्बों से निकल कर लक्ष्य-सिद्धि हेतु बड़े शहरों की ओर मुखातिब होती है तो वहां की चकाचौंध उसे विचलित भी अवश्य करती है। और फिर, 

स रंग बिरंगी दुनियां में स्वयं को संयमित कर सादगी के साथ कर्तव्य-पथ पर अग्रसर होना वाकई कठिन है। परन्तु आपकी पुस्तक की नायिका "शिवांगी" जिस धैर्य व आत्मविश्वास के साथ लक्ष्य- सिद्धि हेतु समर्पित हुई है, यह सपनों को पंख लगाने वाली समस्त लड़कियों के लिए निश्चय ही मार्गदर्शक सिद्ध होगी।

शिवांगी का चरित्र वर्णन वाकई आपने एक बहादुर व समझदार लड़की के रूप में किया है। साथ ही साथ यह भी दर्शाने की कोशिश की है कि युवा-पीढ़ी उन मामूली से विषयों पर भी इस प्रकार गहन चिंतन करने लगती है, जिनके विषय में उन्हें सोचने की कोई आवश्यकता ही न थी, और यही चिंतन, चिंता बनकर उनके नित्य कर्मों में बाधक होती है। फिर ये चिंता विचलन का रूप धारण कर मंजिल की राह में उस शिला की भांति अडिग हो जाती है जिसे तोड़ पाना वाकई मुश्किल सिद्ध होता है। "शिवांगी" तथा "नैना" का चरित्र भी इसी प्रकार का दृष्टिगत होता है, "नैना" को भी बेकार की मानसिकता के कारण अपने लक्ष्य से कदम पीछे हटाने को मजबूर होना पड़ा है। और फिर, कहीं न कहीं यह भी नजर आता है कि हो न हो "शिवांगी" की असफलता का कारण भी कुछ-कुछ इसी प्रकार की मानसिकता का घर कर जाना ही है।

अपने लक्ष्य के प्रति गंभीर होना अच्छी बात है, किन्तु चिंतित होकर अग्रसर होना असफलता की कुंजी है। कर्तव्य-पथ पर अग्रसर होते हुए "शिवांगी" के जीवन में जो भी आया, वह चाहे "सुधीर" हो, "प्रशांत" या फिर "अनुराग" कहीं न कहीं "शिवांगी" सबों को अपने जीवन में एक बाधा के नजरिये से देखती रही, हाँ! बाद में "प्रशांत" के प्रति अनुराग भाव व सहयोगी की दृष्टि उत्पन्न हुई, परन्तु ढाई कदम। वहीं "प्रशांत" व "अनुराग" का चरित्र इस प्रकार का है कि उन्होंने जीवन में आने वालों को कर्तव्य-पथ की बाधा के रूप में नहीं, बल्कि सहयोगी के रूप में देखा और अंततः सफलता पाई।

अंत में बस इतना ही कहना चाहूंगा कि आपके द्वारा रचित पुस्तक "ढाई कदम" उन युवा पीढ़ियों के लिए वास्तव में प्रेरणास्रोत साबित होंगी जो प्रशासनिक सेवा में योगदान देने के लिए स्वयं को नित तपा रहे हैं। और इस मार्ग में पड़ने वाले असमंजस के भाव को दरकिनार करने में सफल होकर, लक्ष्य के प्रति एकाग्रचित हो सकेंगे। साथ ही साथ इस बात का भी अनुभव प्राप्त करेंगे कि अपने पद की गरिमा बनाये रखने के लिए किसी से किये गये वादे को त्याग देना अहितकारी ही होता है तथा अनुराग का चरित्र प्रेरणा बनकर भी उभरेगा कि जब तक एक भी प्रयास बाकी है, व्यक्ति को प्रयासरत रहना चाहिए।

उपन्यास "ढाई कदम" पाठकों को लगातार, बिना रुके अंतिम पृष्ठ तक पहुँचाने में सफल सिद्ध हुआ है। आपको ऐसी पुस्तक की रचना करने हेतु आपका साधुवाद।

कुन्दन कुमार, बी.सी.ए.

नौगांव,असम 

14.

ढ़ाई क़दम- अधूरे प्रेम की अनोखी दास्ताँ

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मनुष्य के जीवन में प्रेम बहुत बड़ी ताकत है। प्रेम में हार –जीत नहीं होती किन्तु वर्तमान में प्रेम की बाजियां भी लगनी शुरू हो गईं हैं। सागर का काम है नदियों को स्वयं में समाहित कर लेना। परन्तु कुछ नदियाँ जिद्दी भी          होती हैं और अपने संयम और शील को बचाए रखने के लिए उस सागर में नहीं समातीं और दम तोड़ देती हैं।

नायिका शिवांगी जब आगे पढ़ना चाहती है, तब घर के लोग मना कर देते हैं क्योंकि घर की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि उसे आई.ए. एस. की तैयारी करने दिल्ली भेजा जा सके। घर में बड़े भाई का रिश्ता तय हो रहा था और बहिन शिवांगी रो रही थी। बहिन के लिए भाई त्याग करता है और शादी से मना कर देता है ताकि बहिन अपने सपने को पूरा कर सके।

छात्र जीवन में आकर्षण होना कोई नई बात नहीं है। बहुत ही स्वाभाविक होता है यौवन की दहलीज पर कदम रखने पर प्रेम हो जाना। नायक और नायिका के शैक्षणिक जीवन संघर्ष और प्रेम की कथा है “ढाई कदम”। तीन मित्रों की कहानी जो साथ-साथ अपनी उच्च नौकरी की तैयारी करने दिल्ली आते हैं और कोचिंग क्लास से शुरू हुआ आकर्षण दोस्ती में बदल जाता है।


        एक स्त्री का दूसरी स्त्री के प्रति लगाव होना भी कोई नई बात नहीं है। लेकिन इस कहानी में नैना जिस तरह से अपनी सहेली शिवांगी के प्रति गंभीर प्रेम करती है वह उसे मानसिक बीमार बना देता है। इस क्रम में नायिका शिवांगी को भी बहुत कुछ अनचाहा झेलना पड़ता है। यह बहुत ही भावुक पक्ष है इस कहानी का।


         राकेश कुमार श्रीवास्तव “राही” जी ने इस कहानी को एक सूत्रधार की तरह प्रस्तुत किया है। लेखक हर घटना को ऐसे हमारे सामने रखते हैं जैसे की कोई चलचित्र चल रहा हो। उनका कहानी में प्रवेश कर पाठक से बात करना , पढने के बजाय कहानी सुनने का अनुभव देता है।

तीन मित्र आई.ए.एस. की तैयारी कर रहे हैं और तीनों एक–दूसरे से सीखते हैं। प्रेम का एक अध्याय ख़त्म होता है नैना के घर जाने पर तो एक नए अध्याय में प्रेम त्रिकोण सामने आता है, लेकिन जल्द ही आपसी समझ से नायिका शिवांगी इस बात को स्पष्ट कर देती है और वह सिर्फ नायक प्रशांत की बनी रहने का निर्णय लेती है। इस निर्णय का उनके दोस्त अनुराग ने स्वागत किया। शिवांगी और प्रशांत का प्रेम बढ़ता गया। अनुराग के कहने पर बैंक पी.ओ. के पद के लिए तीनों ने आवेदन कर दिए थे और साथ ही आई ए एस की भी पढ़ाई जारी थी। शिवांगी इस बैंक पी ओ की परीक्षा में पास हो जाती है। अनुराग और प्रशांत आई. ए. एस. में चुन लिए जाते हैं। मजबूर शिवांगी बैंक की नौकरी ज्वाइन कर लेती है।

प्रशांत भी बहुत कोशिश करता है शिवांगी से बात करने की मगर वह सफल नहीं होता। ट्रेनिंग के दौरान एम. एल. ए. की भांजी और सहपाठी से प्रशांत को प्रेम हो जाता है और बाद में शादी भी। लेकिन आर्थिक स्तर और अहम् आड़े आते हैं उनके, जिस कारण यह शादी कुछ साल बाद टूट जाती है। प्रशांत अब तक भी शिवांगी को नहीं भूला था। वह शिवांगी के साथ पुनः जीवन शुरू करने की आस लिए उसके घर पहुँचता है। शिवांगी उससे मिलती है लेकिन शादी से इन्कार कर देती है।

एक मित्र को जैसा अपनी दोस्त के साथ वर्ताव करना चाहिए वह इस कहानी में दिखाया गया है। एक मित्र को अपने मित्र की मदद और सहानूभूति पर भरोसा रखना चाहिए। औरत जीवन में किसी से एक ही बार प्रेम करती है , यही बात इस कहानी की मुख्य धुरी है और प्रेम को प्रतिष्ठित भी करती है। शिवांगी की महानता और प्रेम की सघनता को भी। शिवांगी का यह कथन इस बात की पुष्टि करता है :-


“औरत को आप कुछ-कहें या न कहें वो पुरुषों की दिल की बात उसकी नज़रों एवं चेहरे के हाव-भाव को पढ़ कर जान लेती है। मेरा जो जवाब पहले था उस पर मैं आज भी कायम हूँ। मैं अब भी तुम्हारी हूँ परन्तु अब मैं तुम्हारे साथ नहीं रह सकती क्यूंकि स्त्री प्रेम के ढाई कदम जीवन में एक बार उठाती है और ताउम्र उन कदमों की पवित्रता बनाए रखती है। और तुमने तो उस पवित्रता की लाज ही नहीं रखी। दोष तुम में नहीं, यह पुरुषों की फितरत है। वह अपने जीवन में न जाने कितनी बार ढाई कदम उठाते हैं और भूल जाते हैं। राधा और मीरा का जीवन कोई पुरुष जी ही नहीं सकता। हो सके तो मुझे मेरी इस गुस्ताख़ी के लिए क्षमा कर देना।“

एक औरत का यही त्याग उसे पूजनीय और देवी बनाता है। औरत जीवन में मन से किसी एक की ही होकर रहना जानती है मगर पुरुष भंवरे की तरह होता है। उसकी चंचलता उसे भटकाती है और जीवन में अंत प्रशांत की तरह होता है, वह एकाकी जीवन जीने को मजबूर हो जाता है। प्रेम के ढाई कदम सिर्फ ढाई कदम नहीं हैं बल्कि बहुत बड़ी पारस्परिक जिम्मेदारी है। थोड़ी–सी गलती किस तरह किसी औरत के सम्पूर्ण जीवन को तबाह कर सकती है, वह इस कहानी से स्पष्ट है।

भाई का प्रेम और त्याग, मित्रता की हदें, सम्मान और मित्रता के मायने इस कहानी में हमारे सामने आते हैं। औरत का प्रेम कोई खिलौना नहीं और स्वीकारोक्ति केवल पुरुष ही देगा यह भी बात अच्छे से झुठलाई गई है। जीवन संघर्ष और प्रेम की इस खूबसूरत कहानी और खूबसूरत कहने के अंदाज़ के लिए और उनकी पहली प्रस्तुति के लिए भाई राकेश कुमार श्रीवास्तव “राही” जी को मैं अपनी हार्दिक शुभकामनाएँ और बधाई प्रेषित करता हूँ।

केदार नाथ “शब्द मसीहा”, साहित्यकार

नई दिल्ली

Review from Goodreads Writer and Reader

Shreshtha Singh

May 15, 2020Shreshtha Singh rated it it was amazing
Must read

A very nice story,evey one should read this book once, You will feeL,story is related to your life, Thank's for A lovely book





Surabhi Sharma

Apr 24, 2020Surabhi Sharma rated it really liked it
This is the story of a girl and of her dreams and hardships she faced in her life. The story tells the life of a girl in today's time.
A life journey of a girl and hurdles she faced chasing her dreams.

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